Sunday, September 13, 2009

ITIHAS KI DHALAN


इतिहास की ढ़लान
राशिद अली

जब कला थी इतिहास नहीं था
जब तक इतिहास लिखा गया
कला मर चुकी थी..

इतिहास आज एक यक्ष प्रश्न बन चुका है. आज अगर महाभारत के युधिष्ठिर जिंदा होते (अगर कभी थे) तो या वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मे ढ़ल चुके होते या फिर मंटो के तौबा टेक सिंह की तरह “नोमैंस लैंड’’ मे रघुवीर सहाय का ‘फटा-सुथन्ना’ पहनकर मारे मारे फिर रहे होते. अधिक उम्मीद यही थी कि वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ही चोला पहनते क्योंकि महाभारत और रामायण सीरियल के ज़्यादातर पात्र संघ का ही प्रचार कर रहे हैं. तौबा टेक सिंह की सुनता कौन? पागल जो ठहरे. दरअसल गलती इतिहास की नहीं. यह तो पहले से ही वेद-वाक्य या फ़रमाने इलाही बनकर हमारी चेतना मे घुसा हुआ है. स्कूल के दिनों मे ‘विद्या’ नाम के मास्टर हमें पढ़ाते थे. वे मुसलमानों से ‘नफ़रत’ तो नहीं करते थे, पर हां किसी मुसलमान बच्चे के बारे में यह जरुर मानते थे कि नया पाकिस्तान बनाने मे इस बच्चे के अंदर भी प्रबल संभावना है. बाद मे जब मै जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय आकर कम्यूनिस्ट बन गया तो पता चला कि ‘विद्या’ सर तो इप्टा से जुड़े हैं.
प्रकांड मार्क्सवादी आलोचकों को मेरे इस तरह लिखने से आपत्ति हो सकती है, क्योंकि मै जीनियॉलोजी का सहारा ले रहा हूं, न कि शुद्ध अकादमिक विमर्शों का. लेकिन सवाल यह है कि ‘पर्सनल हिस्ट्री’ बृहत इतिहास का हिस्सा क्यों नहीं हो सकती. सिर्फ वर्ग की समग्रता के चश्मे में ही तो सबकुछ पिरोया नहीं जा सकता. ‘वाम दल’ अगर ‘मध्यम-वर्ग’ की राजनीति करें तो ठीक, आप सिर्फ लेखन के मामले में ही ‘उत्तरसंरचनावादी’ बनने की ठूट नहीं ले सकते! वाह! क्या फरमाने इलाही है! खैर मेरी इन विषयों को लेकर काफी सतही समझ है और शायद मै इसीलिए किसी भी बात को लेकर आश्वस्त नहीं होना चाहता. मेरी मां ने कभी भी सैयद आगा हसन अमानत द्वारा रचित नाटक इन्दर-सभा नहीं पढ़ा था या इस नाम से बनी फिल्म को नहीं देखा था. जैसा चार्ल्स डिकेंस के ग्रेट एक्सपेक्टेशंस के अनाथ किरदार पिप को अपने मरे हुए मां-बाप की कोई छवि इसलिए याद नहीं थी क्योंकि उस समय तक फोटोग्राफी का ईजाद नहीं हुआ था, ठीक ऐसी ही मेरी मां भी थी. पर उनके समय में खूब नाटक और फिल्में देखी जा रही थीं. बस करोड़ों हिंदुस्तानियों की तरह ही उनकी बूढ़ी आंखें भी कलात्मकता के इस जादू से वंचित थीं. रास-लीला पर आधारित 1853 मे लिखे गए इस नाटक में इंद्र उर्दू बोलते थे, न कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी. जब बचपन मे मेरी मां ‘अधुआ और सब्ज़परी’ की कहानी सुनाती थी तो इसमे इंद्र भोजपुरी बोलते थे. इस कहानी मे ‘विरित्रासुर’ को हराने वाले इंद्रासन की हार होती थी. जब बचपन मे हम यह कहानी सुनते थे, उससे बहुत पहले ही हिंदुस्तान-पाकिस्तान का विभाजन हो चुका था. जाहिर है मेरी मां ने भी विभाजन की त्रासदी झेली होगी.
आज मेरी मां नहीं हैं जैसे करोड़ों लोग नहीं हैं. मै इमरजेंसी के दौर मे पैदा हुआ था जो विभाजन के बाद की सबसे बड़ी घटना थी. मुझे उस समय का कुछ भी याद नहीं. हां जब इन्दिरा गांधी का कत्ल हुआ था तो हम लोग उस औरत के यूं मर जाने से रोते थे और सरदारों को कोसते थे. जब तक होश संभाला, बाबरी मस्जिद गिर चुकी थी और जब कुछ लिखने पढ़ने का समय आया तो गुजरात कत्लगाह बन चुका था. आज जब मै यह लेख लिख रहा हूं तो हिंदुस्तान से टूटा हुआ पाकिस्तान और भी टूट रहा है और तालिबान जैसा शेषनाग फन उठाए पूरे पाकिस्तान को डसने को तैयार बैठा है. अगर सलमान रश्दी के शब्दों में कहें तो सचमुच इतिहास को लेकर हम कितने ‘रेडियोऐक्टिव’ हैं.
पर जैसा कि प्रेमचंद ने कहा है कि लेखन कर्म तपस्या जैसा है, लोग आज भी उसी शिद्दत से लिख रहे हैं. यहां तपस्या के दो संदर्भ हैं. एक तो ऋषि-मुनियों की जैसी तपस्या जो अक्सर इतिहासकार करते हैं. दूसरी सामाजिक सरोकार रखने वाले लोगों की तपस्या. पुराने इतिहासकार आज भी ‘हजारों सालों’ की तपस्या कर रहे हैं और मुक्तिबोध के शब्दों में ‘मार्क्स का सिंह जैसा सिर लिए दिल्ली की सड़कों पर मिमियाते फिर रहे हैं’. वहीं लेखकों की युवा पीढ़ी भी है जो मूलतः इतिहासकार तो नहीं पर हां पुराने इतिहासकारों की समझ का भंडा फोड़ कर रही है. जब हम पुराने इतिहासकारों की बात करते हैं तो अक्सर उनके लेखन में प्रतिक्रियावाद और प्रगतिवाद के स्वर एक साथ गुंजायमान होते हैं. ऐसे इतिहासकार अक्सर दयानंद, विवेकानंद, गांधी, भगत सिंह, नेहरु, अंबेडकर और पटेल को एक ही कतार मे खड़ा कर देते हैं और जनरल डायर की तरह हुक्म देते हैं कि मानो! यही असली इतिहास है. यहीं से वे राष्ट्रीयता की एक पहचान विकसित करने की कोशिश करते हैं. कुल मिलाकर राष्ट्र ही धर्म बन जाता है और धर्म राष्ट्र. हत्ता यह कि सैंकड़ों सालों से हम ‘सैमुअल बेकेट के गोडो’ का इंतजार कर रहे हैं और ‘ऐतिहासिक अक्रमन्यता’ को ‘ऐतिहासिक सूत्र’ मे पिरोने की कोशिश कर रहे हैं. पर असली इतिहास है क्या?
इस सवाल का जवाब आसान नहीं क्योंकि इतिहास राजतरंगिनी या इंडिका या मुंतखबत तारीख नहीं है. या यूं कहें कि मध्यकालीन भारत और प्राचीनकालीन भारत भी इतिहास नहीं है तो बेजा न होगा. जब मध्यकाल और प्राचीनकाल मे भारत या हिंदुस्तान का वजूद था ही नहीं, तो स्टेनलेपूल के द्वारा किए गए इस काल निर्धारण को हम क्यों मान लें. हम आधुनिकता के सांचे मे ढ़ली राष्ट्र की परिकल्पना को मध्य या प्राचीन काल पर कैसे थोप सकते हैं. इसका अर्थ तो यही हुआ कि इतिहास संस्कृतियों या सभ्यताओं की continuity बवदजपदनपजल यानी निरंतरता पर टिका है. यहीं फूको इतिहास की इस निरंतरता का खंडन करते हैं और कहते हैं ‘इतिहास तर्कमूलक आचारों का अनिरंतर सिलसिला है.’ ये तर्कमूलक आचार क्या हैं? ये अलिखित और अनकहे नियम हैं, जिन्हें मानना सबके लिए बाध्य हो जाता है और जो नहीं मानते उनके लिए चुप्पी का नर्कद्वार खुल जाता है. मार्क्स ने भी तो इतिहास को विचारों के संघर्ष के रुप मे देखा था. जब इतिहास मे पहले ही इतना विरोधाभास है और सारी की सारी संस्कृतियां विडंबनाओं से लबरेज़ हैं तो ऐसे मे इतिहास को लेकर वस्तुपरक रवैया अपनाना एक खास किस्म की मानसिकता को ही उजागर करता है.

यहीं मार्क्स इतिहास को समाज से अलग करते हैं. वे अलग अलग दौर के सामाजिक उथल-पुथल को वर्ग संघर्ष के नज़रिए से अध्ययन करते हैं क्योंकि समाज अपने आप हमें किसी दौर के तथ्यों और परिवर्तनों से अवगत नहीं करा सकता. बात सही भी है. बचपन से जवानी तक हमारा जेहन ‘ऐतिहासिक तथ्यों’ के ‘गैर ऐतिहासिक’ दृष्टि से अटा पड़ा रहता है. जेम्स मिल ने जिस संदर्भ मे यह कहा था कि भारतीयों में इतिहास दृष्टि नहीं है, मैं उस संदर्भ की वकालत तो नहीं कर रहा लेकिन हां इतना जरुर कहूंगा कि एक औसत भारतीय आज भी चंगेज खान को ‘मुसलमान’ समझता है. इतिहास की यह मौखिक परंपरा दरअसल संघ परिवार के प्रचार से बहुत पहले की है. इस परंपरा के ‘गुणसूत्र’ मुख्य धारा से लेकर हाशिए तक में लटके पड़े हैं. उदाहरण के तौर पर अमीर खुसरो मुसलमान होते हुए भी ‘राष्ट्रवादी’ थे. औरंगजेब तो औरंगजेब, महाराणा प्रताप की छवि के आगे अकबर भी एक घोर ‘निरंकुश’ राजा था. साहित्य मे तो ऐसा इतिहास ‘उत्तरआधुनिक कूड़े’ के समान पड़ा है. सवाल यह नहीं है कि जनमानस मे ऐसा इतिहास विकसित कहां से हुआ बल्कि यह है कि कौन सी ऐसी ‘ऐतिहासिक भूल’ है जिसके एवज में अबतक लाखों कराड़ों लोग मार दिए गए हैं और भविष्य मे भी मारे जाएंगे. ऐसा क्यों है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन हिंदुओं और मुसलमानों की राष्ट्रीय अस्मिताओं के रुप मे देखा जाता है? तब बाकी संप्रदाय कहां गए? सिक्ख, इसाई, बौद्ध, जैन.........यहां तक मुसलमानों के अंदर के फिरके. तब तो राष्ट्र सचमुच एंडरसन की एक ‘इमैजिंड कम्यूनिटि’ है.
एक ऐसे समय में जब ‘विचारधारा और इतिहास के अंत’ से लेकर ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का मुक्त आकाशीय रंगमंच तैयार खड़ा है तब आज भी हमें नेपथ्य में कुछ कोलाहल सा सुनाई पड़ता है. कुछ लोग खड़े होते हैं ‘इतिहास के अंत’ का सिरा पकड़े हुए, ‘अंत’ को आरंभ की ओर ढ़केलते हुए और तथाकथित सभ्यताओं का जोसेफ कॉनरैड की ही भाषा में तिरस्कार करते हुए—exterminate the brutes. हार्ट ऑफ डार्कनेस यानी अंधेरे के दिल का सीना चीरते हुए जब ये पात्र हमारे सामने आते हैं तो मरे हुए इतिहास में भी जान आ जाती है. प्रियंवद एक ऐसे ही पात्र हैं जो इतिहास को कभी भी इति का हास्य नहीं बनने देते. नोम चोमस्की की भाषा में कहें तो वे इतिहास को कभी भी ‘भविष्य के गड्ढे’ में नहीं ढ़केलते. इतिहास को उसी प्रतिबद्धता के साथ लिखते हैं जैसा कभी नागार्जुन ने कहा था--आबद्ध हूं, संबद्ध हूं, प्रतिबद्ध हूं, अनुगामी समाज के लिए. सही भी है. भारत विभाजन कोई ‘मिडनाइट चिल्ड्रेन’ जैसा कोई दस्तावेज तो नहीं, जहां जलियांवाला बाग मे जनरल डायर की पाशविक बर्बरता के बाद भी सलमान रश्दी के पात्र आदम अजीज के नाक में खुजली हो रही हो. विभाजन एक ऐसी घटना थी जो ‘आउशवित्ज’ के कॉसेंट्रेशन कैम्प से कम भयावह नहीं थी.

ऐतिहासिक भूल

भारत विभाजन की अंतःकथा - प्रियंवद अपनी इस पुस्तक की शुरुआत करते हैं सम्राट अशोक के एक प्रसिद्ध शिलालेख से, जिसमें राजा की सदिच्छा है कि लोग परस्पर मेलजोल से रहें, दूसरे संप्रदाय की निंदा न करें और एक दूसरे के धर्म को ध्यान देकर सुने. पता नहीं कि प्रियंवद की सदिच्छा है या प्रियदर्शी अशोक की? अगर ऐसा होता तो फ्रैंज़ फैनो यह कभी नहीं कहते कि हिंसा इतिहास की दाई है. खुद सम्राट अशोक बौद्ध धर्म अपनाने से पहले काफी हिंसक रहे थे. कलिंग के जनसंहार के बाद उनका मन द्रवित हो गया. अब तक के ज्ञात इतिहास में ऐसा ही लिखा है, यानी अशोक ईरान के नौशेरवां और यमन के हातिम की तरह हो गए. लेखक यहां मानों कबीर के प्रेम-पीड़ा की अनुभूति मे खो गया लगता है,

प्रेम न बारी ऊपजै प्रेम न हाट बिकाय
राजा-परजा जेहि रूचै सीस देइ ले जाय!!

पर राजा तो राजा होता है. वह राजा इसीलिए होता है क्योंकि राज करने के लिए प्रजा होती है. राजा और प्रजा का मेल कैसा? रूसो के ‘जेनेरल विल’ के महान रहस्योद्घाटन से पहले प्रजा राजा के साथ एक अलिखित आचार मे बंधी होती थी और राजा हमेशा चाणक्य नीति से बंधा होता था. पता नहीं अशोक का मन कितना द्रवित हुआ, पर कलिंग के जनसंहार के बाद जब माफी मांगने की बारी आई तो उन्होंने कंधार में एक शिलालेख बनवा दिया. कहां कलिंग और कहां कंधार! भौगोलिक दूरी समय की दूरी में बदल गई और आज हम सम्राट अशोक को एक महान प्रजापालक राजा के रूप में जानते हैं. चलिए माना कि बौद्ध धर्म में कुछ ऐसा है कि सम्राट अशोक का दिल पिघल गया होगा. पर आज श्रीलंका में तो बौद्ध धर्म की ही छाया है, फिर तमिल हिंदुओं का जनसंहार क्यों? अक्सर इतिहासकार यही गलती करते हैं. लेकिन यहां प्रियंवद का संदर्भ दूसरा है. अशोक के शिलालेख के बाद वे किंग लियर को उद्धरित करते हैं जो विभाजन के उत्तरदायी लोगों का एक जबरदस्त चरित्र चित्रण है और जो बस इतिहास की विडंबनाओं को ही चिंहित करता है. किंग लियर ने कहा था- ‘मै ऐसे काम करुंगा जो मै अभी तक नहीं जानता क्या हैं, लेकिन वे धरती का आतंक होंगे.’ अरस्तू के कैथारसिस से ओत-प्रोत शेक्सपियर के इस दुखांत से दर्शकों को कितना रस मिलता होगा पर शेक्सपियर ने यह भी कहा था कि दुनिया एक स्टेज है और हम सब इसके पात्र. जरा सोचिए रक्तबीज रूपी न जाने कितने किंग लियर इस धरती पर पैदा हुए हैं.

विभाजन को लेकर खुद प्रियंवद भी यही कहते हैं ‘‘विभाजन समस्त नाट्य तत्वों से भरपूर एक विराट त्रासद नाट्यकृति है. त्रासद इसलिए कि आश्चर्यजनक रूप से, इस विभाजन का कारण न तो कोई बाहरी आक्रमण था, न गृहयुद्ध, न उत्पादन या पूंजी या बाजार की आर्थिक विवशताएं और न ही कोई प्राकृतिक प्रकोप. प्रत्यक्ष रूप से यह करोड़ों मनुष्यों का, संवैधानिक रूप से अपना प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं के माध्यम से स्वेच्छा से चुना हुआ ‘काल को खंडित करने वाला निर्णय’ था.’’ यहां लेखक पहले से ही चीजों को लेकर काफी आश्वस्त नजर आता है. यहां दो बहुत ही महत्वपूर्ण बातें हैं जिसकी लेखक ने आगे विस्तार से चर्चा की है. पहली यह कि विभाजन संवैधानिक रूप से अपना प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं के माध्यम से स्वेच्छा से चुना हुआ निर्णय था. अगर विभाजन के समय के नेताओं की उम्र देखें तो लगभग तमाम नेताओं की उम्र साठ पार कर गई थी. इस उम्र मे जल्दबाजी लाजमी थी क्योंकि वे ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ते लड़ते थक चुके थे और उन्हें नए देश की हुकूमत में हिस्सा चाहिए था. पर इसमे पिसी अविभाजित देश की जनता जो अपनी जड़ता, निरीहता और असहायता में ‘हैमलिन के बांसुरी वादक के पीछे चलने वाले मंत्रमुग्ध चूहों’ की तरह अपने नेताओं का अंधानुगमन करती रही. दूसरी बात है काल को खंडित करने वाले निर्णय के बारे में. पर किस काल को खंडित करने वाला निर्णय था यह? कुछ मामलों में लेखक ने भी जल्दबाजी से काम लिया है. वे चर्चिल की भविष्यवाणी से अभिभूत नजर आते हैं कि ‘भारत आजाद होने के बाद टुकड़ों मे बंट जाएगा.’ लेखक के अनुसार, इसी विघटन में निर्वासन का दर्द छुपा हुआ है चाहे वह विभाजन हो या बांग्लादेश या फिर कश्मीर के हिंदू. आगे लेखक यह भी कहता है कि ‘पाकिस्तान जब तक अपने जन्म के वैचारिक आधार इस्लाम की शरण लेता रहेगा, भारत के हिंदुवादी बनने का आत्मघाती मार्ग खुला रहेगा.’ समस्या यहीं है. यह सही है कि पाकिस्तान की लड़ाई संपन्न धनी उच्चवर्गीय मुसलमान के हितों की लड़ाई थी, मेहनतकश गरीब मुसलमानों की नहीं. पर अगर यह लड़ाई मेहनतकश गरीब मुसलमानों की होती तो क्या पाकिस्तान बनने का औचित्य सही था? लेखक यहां खामोश है और मै यही सवाल उठाना चाहता हूं. यह तो अल्लामा इकबाल की तरह मुसलमानों को एक ही झुंड में हांकने वाली बात हो जाएगी.

एक ही सफ में खड़े हो गए महमूदो अयाज़
न कोई बंदा रहा और न बंदा नवाज़!!

सारा का सारा मामला ही राष्ट्र की अवधारणा से जुड़कर गड्मड हो गया है. राष्ट्र के सामने किसी और अस्मिता की बिसात कहां! पर यहां एक सवाल काबिले गौर है. अगर भारत एक राष्ट्र के रूप में अंग्रेजों के चंगुल में था तो क्या भारत का कोई चंगुल नहीं? ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ही आज भारत की अनेक कंपनियां उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झाड़खंड समेत अफ्रीका के कई देशों में अपनी अंग्रेजियत का परिचय दे रही हैं. भारत के अंदर आज भी दबी कुचली अनेक राष्ट्रीयताएं हैं जो भारत जैसे ‘संपन्न’ राष्ट्र से लोहा ले रही हैं. ठीक इसी तरह पाकिस्तान के अंदर भी राष्ट्रीयताएं अंदर ही अंदर सुलग रही हैं. हिंदुस्तान की एक बड़ी आबादी उस समय बहुत खुश होगी जब पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग हुआ होगा. पर विडंबना यही है कि पाकिस्तान से वह हमेशा ही अलग था भौगोलिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टि से. वह बृहत भारत का भी हिस्सा नहीं था. सिर्फ पश्चिम बंगाल के करीब था. जो लोग विभाजन के लिए जिम्मेदार थे उन्होंने न सिर्फ इतिहास के साथ छल किया, बल्कि भूगोल को भी ठग लिया. इतिहास की ‘महाठगनी’ ने इतिहास के एक महा प्रपंच को एक भौगोलिक शक्ल दे दी. आज ऐसी ही स्थिति कश्मीर की भी है. विभाजन के समय जब पूरे भारत और पाकिस्तान में खून की नालियां बह रही थीं, वहीं कश्मीर दो टूटते हुए देशों की मूर्खता पर कहकहे लगा रहा था. कश्मीर के सौहार्द को विभाजन ने भी विचलित नहीं किया. पर आज वही कश्मीर दो विभाजित देशों की सामरिक शक्तियों का हलाहल पीने को बाध्य है.

यहां कश्मीर का जिक्र क्यों? यह इसलिए क्योंकि प्रियंवद ने खुद ही निर्वासन के दर्द में कश्मीरी हिंदुओं को जगह दी है. लेकिन यह बात आईने की तरह साफ है कि कश्मीरी हिंदुओं को मुसलमानों ने निर्वासित नहीं किया, बल्कि यह घोर रूप से भारत की सांप्रदायिक नीति का हिस्सा थी. हां कुछ मामलों मे अपवाद जरुर रहे होंगे. वर्ना अपनी कश्मीरियत को बचाने वाले वहां के लोग मुसलमान ही कहां थे. तसव्वुफ और भक्ति की ब्यार में ये लोग हिंदू और मुसलमान की श्रेणी से बहुत आगे निकल गए थे. पर आदिगुरु शंकराचार्य की तरह जगमोहन वहां गए और पूरें के पूरे काल को ही खंडित कर आए.

लेखक ने जो सबसे विस्फोटक बात कही है वह है ‘पाकिस्तान जब तक अपने जन्म के वैचारिक आधार इस्लाम की शरण लेता रहेगा, भारत के हिंदुवादी बनने का आत्मघाती मार्ग खुला रहेगा.’ यह एक खतरनाक संकेत है, जो कहीं से तर्कसंगत नहीं है. भारत के हिंदूवादी होने के लिए पाकिस्तान का इस्लामी होना जरुरी नहीं है. पाकिस्तान बनने से बहुत पहले एशिया और अफ्रीका मे कई सारे इस्लामी राष्ट्रों का निर्माण हो चुका था. उधर नेपाल भी अरसे से हिंदू राष्ट्र था. जबतक दुनिया मे अस्मिताएं रहेंगी, अस्मिताओं के आधार पर राष्ट्र बनते और बिगड़ते रहेंगे. खालिस्तान की मांग को तर्कहीन और बुरा कह देने और आम जनता पर सैन्य शक्ति का परिक्षण कर देने मात्र से ही समस्या का समाधान नहीं होगा. इसके लिए जो सबसे जरुरी है कि किसी भी राष्ट्र के इतिहास को उसकी निरंतरता से काटा जाए. इसी निरंतरता से सनातनी प्रवृत्तियों का उदय होता है, जो बाद में हिंसक संप्रदायवाद का शक्ल धारण कर लेती है. फिर यह प्रश्न भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ दिया जाता है कि विभाजन क्यों हुआ.

मार्क्स ने कहा था कि दार्शनिकों ने संसार की व्याख्या कई तरह से की है पर सवाल आखिरकार इसे बदलने का है. पर बदलाव हो तो कैसे हो, जब बदलाव स्वयं ही दर्शनों की व्याख्याओं पर टिका हो? मार्क्स ने आदर्शवाद से उपजे तमाम दर्शनों को भौतिकवाद की कसौटी पर परखने की कोशिश की थी. आज मार्क्सवादियों ने भौतिकवाद को ही आदर्शवाद के खांचे में डाल दिया है. ‘आर्यसमाज’ के नंदी बैल की तरह ही ये लोग भी ‘वेद’ की ओर कूच करते जा रहे हैं. ऊपर से तुर्रा यह-

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शबगज़ीदा सहर
था इंतज़ार जिसका ये वो सहर तो नहीं

यहां मै भौतिकवाद की चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यही वह दर्शन है जो अस्मिताओं के सवाल को बेहतर ढ़ंग से समझने मे सक्षम है. देरिदा के ‘डीकंस्ट्रशन से बहुत पहले ही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने बाकी दर्शनों का मर्सिया पढ़ डाला था. बचपन में उत्सुकता के चांद-तारों, पृथ्वी-आकाश और असंख्य जीवों की उत्पत्ति को समझने से पहले ही बच्चा अल्लाह या ईश्वर की शरण में चला जाता है. सबसे पहले इंसान की आजादी यहीं छिनती है और फिर दासता का फलक इतना बड़ा हो जाता है कि दार्शनिकों को भी सबसे हास्यप्रद दुखांत लिखना पड़ता है--नो एक्जिट.. शायद रूसो भी ठीक कहते थे कि आदमी पैदा तो स्वतंत्र ही हुए थे पर दुनिया में आकर वह बेड़ियों मे जकड़ गया. इतिहास की उम्र भले ही काफी लंबी होती है, पर यह बिल्कुल हमारे जीवन जैसा है. कभी भिन्नाता हुआ तो कभी कुलबुलाता हुआ. कभी बिलबिलाता हुआ तो कभी छटपटाता हुआ. मुझे तो संघ परिवार पर कभी-कभी दया आती है कि ये लोग इतिहास के पुर्नलेखन को लेकर इतने उतावले क्यों हैं. इतिहास का पुर्नलेखन पहले ही इतना हो चुका है कि अब गुंजाइश ही नहीं बची. हम सिर्फ शब्दों से काम चला सकते हैं.

इतिहास लेखन की सबसे बड़ी कमजोरी यही रही है कि यह अतीत मे इतिहास टटोलने की कोशिश करता है न कि भविष्य में. इसके केंद्र में, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, राष्ट्रवादी या गैर राष्ट्रवादी ढ़ंग से, एक गौरवशाली परंपरा है जबकि इतिहास में सबसे ज्यादा महत्व ‘गौरवशाली अनिश्चिंतता’ को दिया जाना चाहिए था.

इसी कड़ी मे वैभव सिंह की पुस्तक इतिहास और राष्ट्रवाद को ले लीजिए. हिंदी नवजागरण के संदर्भ में लिखे इतिहास के इस पूरक पाठ से यह तो पता चलता है कि लेखक ने कितनी मेहनत की है. पर पढ़ने के बाद ऐसा लगता है मानों लेखक ने अभी सिर्फ सामग्रियां जुटाई हैं. इतिहास का पूरक पाठ कहीं पीछे छूट गया है. आम हिंदी लेखकों के साथ यही दिक्कत हैं. वे अक्सर विद्वानों की आदरता के वैभव में खो जाते हैं. पर ऐसे समय में जब शब्द ही नहीं बच पा रहे तो वैभव का काम काफी सराहनीय दिखता है. उन्होंने भारत के इतिहास को लेकर ढ़ेर सारी प्रवृत्तियों का एकजा किया है. पुस्तक की शुरुआत होती है, ओमप्रकाश केजरीवाल की उस विवादास्पद पंक्ति से कि अट्ठारवीं सदी में भारत के पास केवल उसका अतीत था, इतिहास नहीं. आम इतिहासकारों की तरह लेखक भी इसका खंडन करते हैं और ले देकर कल्हण के ‘पौराणिक द्वार’ पर खड़े हो जाते हैं. आगे वे राजतरंगिनी के बारे में इतिहासकार सतीश चंद्र को उद्धरित करते हैं ‘‘भारत में जिन्हें कभी कभी इतिहास पुराण कहा जाता है, वे इतिहास लेखन की देशी परंपराओं के सूचक हैं. इस परंपरा में न केवल राजाओं की वंश विषयक सारणियां और स्पष्ट ऐतिहासिक आंकड़े थे, बल्कि उनमें एक खास इतिहास दर्शन भी मौजूद था. कल्हण द्वारा बारहवीं सदी में संस्कृत मे लिखा गया कश्मीर का इतिहास राजतरंगिनी ऐतिहासिक विश्लेषण में स्पष्टता और परिपक्वता का प्रदर्शन करता है और भारत में इतिहास लेखन की लंबी परंपरा के ही विकास का संकेत देता है.’’ यहां वैभव बिना किसी आलोचना के ही सतीश चंद्र की ऐतिहासिक दृष्टि को पचा गए. बात रही राजतरंगिनी की तो यह आरंभ ही होती है ब्रहमांडोत्पत्ति के वैदिक सिद्धांत से, ‘‘तब सत्य और असत्य कुछ भी नहीं था. वायुमंडल भी नहीं था और न ही आकाश. इतना अथाह गहरा जल क्या था? जब विरित्रासुर ने पानी और सूर्य पर कब्जा कर लिया था तो इंद्र ने उसे अपने वज्र से मारा था और अन्य असुरों का भी चुन चुनकर संहार किया था.’’ कश्मीर के राजाओं की वंशावलियों में लिपटी राजतरंगिनी इतिहास को लाखों साल पीछे ढ़केल देती है और आज हम इसे साम्राज्यवादी इतिहासकारों को जवाब देने के लिए ऐतिहासिक स्त्रोत के रूप में आगे करते हैं. मुझे कल्हण की राजतरंगिनी और फिरदौसी के शाहनामा में इसके अलावा और कोई फर्क नजर नहीं आता कि एक को महाकाव्य का दर्जा मिला और दूसरे को ‘प्रामाणिक इतिहास’ का. दोनों का लेखन काल भी लगभग एक ही समय का है. इतिहास की एक और विडंबना देखिए कि जिस महमूद गजनवी को इतिहासकार ‘सोमनाथ के लुटेरे’ के रूप में देखते हैं, उसी के आदेश पर फिरदौसी ने ईरान के बादशाहों का ‘इतिहास’ लिखा,

बसी रंज बुरदम दर ईं साले सी
अजम जिंदा करदम बेदुन पारसी

(इन तीस सालों में मैने लाखों तकलीफें सहीं लेकिन फारसी के माध्यम से मैने पूरब के इतिहास को जिंदा कर दिया)

महमूद गजनवी और फिरदौसी दोनों ही मुसलमान थे और ईरान के जिन बादशाहों का ‘इतिहास’ फिरदौसी ने लिखा वे सब के सब पारसी धर्म के मानने वाले थे. यह एक अजब संयोग है कि ‘‘एक ही परंपरा वाले आर्य प्रजाति के राजाओं और बादशाहों का इतिहास एक ही परिवार की अलग अलग भाषाओं में लगभग एक ही काल में लिखा गया.’’ अगर मान लिया जाए कि राजतरंगिनी भारत के इतिहास लेखन की लंबी परंपरा का ही दस्तावेज है तो हम इसमे से वस्तुनिष्ठ इतिहास की कसौटी पर किन किन चीजों को लेंगे और कौन कौन सी चीजें छांटेंगे. राजतरंगिनी में तो यह भी लिखा है कि ‘कश्मीर को केवल अध्यात्म से ही जीता जा सकता है, सैन्य बल से नहीं.’ आज अगर हम कश्मीर की मौजूदा हालत पर नजर डालें तो यह कितना क्रूर मजाक लगता है. वहां का इतिहास तो जिंदा है, पर वहां के रहने वाले लोग गायब हो चुके हैं. सिर्फ लापता लोगों का कब्रिस्तान बचा है. क्या उत्तरआधुनिकतावाद में यकीन रखने वाले लोग ‘टेक्स्ट’ से निकलकर और वहां के कब्रिस्तान में जाकर ‘अनुपस्थित की उपस्थिति’ को इस अर्थ में भी इस्तेमाल करेंगे?

यहां वैभव खुद इतिहास निर्माण में अतीत के पुराने मिथकों का सहारा ले रहे हैं हालांकि जब वे मैक्समुलर के इतिहास दृष्टि की चर्चा करते हैं, तो बजाप्ता इसका खंडन करते हुए कहते हैं ‘इतिहास के बारे में काव्यात्मक अतिश्योक्तियां इतिहास की कठोर तथ्यपरकता व वस्तुनिष्ठता का निषेध करती हैं.’ एक तरफ वैभव सिंह हैं तो दूसरी ओर रामधारी सिंह. महाकवि महोदय कहते हैं कि ‘यह महल साहित्य और दर्शन का है. इतिहास की हैसियत यहां किराएदार की है. इतिहासकार का सत्य नए अनुसंधानों से खंडित हो जाता है, लेकिन कल्पना से प्रस्तुत चित्र कभी खंडित नहीं होते.’ अब समस्या यह है कि दोनों ही लेखक पेशेवर इतिहासकार नहीं हैं, लेकिन इतिहास को लेकर उनके ठीक अलग विचार हैं. संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने भारत की ‘गौरवशाली परंपरा’ का ऐसा महिमामंडन किया है कि अगर इतिहास की कम जानकारी रखने वाला कोई व्यक्ति इसे पढ़ ले तो उसे परंपरा का लकवा मार जाए. समस्या न काव्यात्मक अतिश्योक्ति की है, न ही इतिहास की तथ्यपरकता की. समस्या कुछ और ही है. अगर तुलसी और कबीर के काव्यों का सहारा लें तो ऐतिहासिक निरंतरता की गांठ खुलने लगेगी और यह तय हो जाएगा कि इतिहास का भविष्य क्या है और भविष्य का इतिहास कैसे लिखा जाना चाहिए. कबीर ने कहा था ‘दसरथ के घर ब्रहमा न जन्मे, ई छलम माया कीन्हां.’ कहां थी कबीर की कोई इतिहास दृष्टि? वे तो महज अपने समकालीन समाज की उथल पुथल का जायजा ले रहे थे. उस समय यह कह देना कि राम दशरथ के पुत्र नहीं थे, बहुत बड़ी बात थी. अगर इतिहासकार इस कविता को इतिहास में जगह दे देते, तो आज राम के जन्म की बात ही नहीं होती और बाबरी मस्जिद गिरने से बच जाती. काश कि इतिहास इस तरह के ‘कंजेक्चर्स’ पर भी चलता. पर ऐसा नहीं हुआ. इसके बदले तुलसी का रामचरित मानस जनमानस की भावनाओं मे अंकुरित होने लगा. पिछले चार सौ सालों से तुलसी की yaar ramayan ki charpayi kaise likhte hainचारपाईयां इतिहास को मृत्युशैय्या पर लिटाकर उसका मातम मना रही हैं, ‘मंगल भवन अमंगल हारी-द्रवहूं सो दसरथ अजिर बिहारी.’ तुलसीदास यह तो बताते हैं कि राम दशरथ के घर ही पैदा हुए, पर यह कहीं नहीं कहते कि दशरथ का घर ही बाबरी मस्जिद थी. वह तो भला हो हमारे इतिहासकारों का कि आज कबीर के दोहे प्रेमचंद के फटे जूते की तरह अभिजात वर्ग को आह्लादित करने की सामग्री भर बनकर रह गए हैं. यह ठीक वैसे ही है जैसे मंडल के समय वामपंथियों का एक बड़ा तबका रातों रात वर्ग संघर्ष की बेड़ियां तोड़ मनुस्मृति के प्रातःगान की स्तुति करने लगा. फुकूयामा को इतिहास का अंत लिखने की जरुरत नहीं थी. अंत तो तभी हो जाता है, जब इंसान सोचना छोड़ देता है. मार्क्स ने यह भी लिखा था कि जानवरों मे भी चेतना होती है, लेकिन इसे लेकर वे आश्वस्त नहीं हो पाते. तो क्या हमारा पूरा का पूरा समाज ही ‘एनिमल फार्म’ है?


प्रियंवद भारत विभाजन को ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में तब से देखते हैं, जब मुगल साम्राज्य ढ़लान पर लुढ़क रहा था यानी औरंगजेब की मृत्यु हो चुकी थी और औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य अपने तीन पुत्रों में बांट दिया था. इस बात को लेकर प्रियंवद ने यह निष्कर्ष निकाला कि ‘देश के विभाजन का यह पहला अभिलेखीय प्रमाण व सोचा समझा प्रयास है.’ पहला अभिलेखीय प्रमाण तो ठीक है पर मुगल साम्राज्य देश तो नहीं था. किसका देश? क्या हम उसे आज के हिंदुस्तान के रूप में देखें? इतिहासकार यही भूल तो करते हैं. राष्ट्र की अवधारणा को आधुनिक मानते हुए भी प्राचीन और मध्य काल को उसी चश्मे से देखने लगते हैं. तब तो ऐतिहासिक निरंतरता में आस्था रखने वाले वे लोग भी गलत नहीं होंगे जो पुराण में इतिहास ढ़ूंढ़ते हैं,

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेष्चैव दक्षिणम
वर्शं तदभारतं नाम भारती यत्र संततिः!!
(वायु पुराण)

इस बात को पहले के इतिहासकार भी लिख चुके हैं कि जिस तरह औरंगजेब ने ‘भारत विभाजन’ की कामना की थी, ठीक वैसे ही पाकिस्तान की भी कल्पना पहले पहल अल्लामा इकबाल के भाषण में प्रकट हुई, जब वे मुस्लिम लीग के सभापति हुए थे. अगर विभाजन की कड़ी ढ़ूंढ़नी ही है तो इतिहास मुगल काल से भी पीछे चला जाएगा, जब राजाओं ने अपने अपने पुत्रों में अपने राज्य की सीमाएं बांटी थीं. अभिलेखीय प्रमाण से क्या होता है. सारा का सारा महाभारत काल ऐसे प्रसंगों से भरा है.

इसके बाद प्रियंवद मुहम्मदशाह रंगीले के संदर्भ में कहते हैं, ‘मुहम्मदशाह एक तमाशा बनकर रह गया. देश वस्तुतः कुछ सरदार या फिर किस्सागो, रम्माल, रंडियां और हिजड़े चला रहे थे.’ यह बात सौ फीसदी सही है लेकिन जिसे वे चला रहे थे वह मुगल साम्राज्य था. नादिरशाह ने भी जब मुगल साम्राज्य पर हमला किया था, तो एक राजा की हैसियत से. उस समय तक संप्रभू राष्ट्र नहीं होते थे. अगर नादिरशाह को आक्रमणकारी और मुहम्मदशाह को इस ‘देश’ का नागरिक मान लें तो यह बस इतिहास के प्रति अन्याय होगा. लेखक के अनुसार, ‘अगर मुहम्मदशाह ने नादिरशाह के प्रति रूखा रवैया नहीं अपनाया होता तो वह अफगानिस्तान के बाहर से ही लौट जाता. उसका यह व्यवहार वैसा ही था जैसा कि राणा सांगा ने बाबर के साथ किया था.’ आखिर राणा सांगा ने किया क्या था? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. इतिहास का यही वह ‘प्रस्थान बिंदु’ है जहां से इतिहासकारों की श्रेणियां बंट जाती हैं. राणा सांगा की सलाह पर बाबर ने लोदी वंश पर हमला किया और उससे भी बड़ा हमला किया राणा सांगा की खाम-ख्याली पर. राणा यही सोचते थे कि लोदी को हराकर और थोड़ा-बहुत लूटपाट कर बाबर वापस लौट जाएगा. पर ऐसा नहीं हुआ. नतीजतन अगले साल ही खानवा की लड़ाई हुई और राणा सांगा को मुंह की खानी पड़ी. बाबर का यूं दिल्ली पर बैठ जाना इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में एक है. इसने भावी इतिहास की दिशा भी तय कर दी. बाबर के विदेश नीति की तुलना मैकियावेली के शासन पद्धति से करते हुए ई. एम. फोसर्टर ने एक बड़ी ही दिलचस्प बात लिखी है, ‘जब मैकियावेली अपने प्रिंस के लिए सामग्रियां जुटा रहे थे, तो एक लुटेरा बालक मध्य एशिया में अपनी फतह का झंडा लहराता चला जा रहा था.’ बाबर को लुटेरा घोषित करने के बाद फोसर्टर कहते हैं, ‘शायद जीवन का त्याग करने के अलावा बाबर की जिंदगी में भारतीयता का और कोई अंश नहीं था.’ यह बात उन्होंने हुमायुं के बीमार पड़ जाने के बाद बाबर के खुदा से दुआ करने के संदर्भ में लिखी है. ठीक यही बात मैक्समुलर ने भी कही थी, ‘मुस्लिम शासन के आतंक और डर के विवरणों को पढ़ने के बाद मुझे इस बात से हैरत होती है कि कैसे हिंदुओं में गुण और सत्यवादिता बची रह सकती है.’ इन लेखकों को उद्धरित करने के पीछे मेरा सिर्फ इतना मकसद है कि ये अन्य यूरोपीय लोगों की तरह नहीं थे. भारत को ‘संपेरों का देश’ नहीं कहते थे. तभी भी इतिहास दृष्टि में कोई फर्क नहीं था. एशिया और अफ्रीका उनके साहित्य के लिए बस ‘सृजनात्मक प्रक्रिया’ का काम करते थे.

मजे की बात यह है कि फोसर्टर जब भ्रमण को आए थे तो अपने अनुभवों को उन्होंने उपन्यास की शक्ल दे दी--ए पैसेज टू इंडिया. यह टाइटल उन्होंने वाल्ट विटमैन की कविता ‘पैसेज टू इंडिया’ से लिया था जिसमें कहा गया था कि ‘इस बेजान सी धरती पर एक दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा. ईश्वर की सच्ची संतान इसे ठीक कर देगी.’ यहां ईश्वर की सच्ची संतान कौन है? शायद रुडयार्ड किपलिंग!!! उनकी कविता व्हाइटमैन्स बर्डन में गोरों का काम ही यही था.

ए पैसेज टू इंडिया का नायक एक मुसलमान है. ए पैसेज टू इंग्लैंड के लेखक नीरद सी.चौधरी को इस बात से बहुत ही आपत्ति थी. उनके विचार में इस उपन्यास का नायक किसी हिंदू को होना चाहिए था. लेकिन किस हिंदू को? उस हिंदू को जिसे वे ग्रीक माइथोलॉजी का हवाला देकर ‘सूअर’ जैसे शब्दों से नवाजते हैं या उस वैदिक हिंदू को जिसका वे महिमामंडन करते हैं. उनके लिए तो पूरा भारत बस कांटीनेंट ऑफ सिर्स ही तो था.

भारतीय इतिहास लेखन की मूल कमजोरी यह भी है कि यह इतिहास के कुछ पात्रों को देवता बना देता है और कुछ को असुर. अशोक, खुसरो, अकबर, विवेकानंद, महात्मा गांधी देवताओं की श्रेणी में आते हैं, जबकि जयचंद, औरंगजेब, गोरी, गजनवी इत्यादि विलेन बने हुए हैं. इतना पारदर्शी तो शीशा भी नहीं होता, जितना यहां का इतिहास है. पर सवाल यह है कि क्या अमीर खुसरो की कृतियों मे सांप्रदायिकता की बू नहीं आती? क्या औरंगजेब मस्जिदें नहीं तुड़वाता था? शिवप्रसाद सितारेहिंद के इतिहासलेखन का हवाला देते हुए वैभव लिखते हैं कि ‘अकबर जैसे सहिष्णु और उदार व्यक्ति की प्रशंसा से समन्वयवादी दृष्टि नहीं, बल्कि इतिहास की सांप्रदायिक दृष्टि ही मजबूत होती है.’
दूसरी बात यह कि इतिहास लिखने के क्रम में धर्म को उसकी पूरी समग्रता में देखा गया है जबकि एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के साथ सारे धर्मों का विकास ruptures में हुआ है. यह कोई हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के समन्वय की बात नहीं है. धर्म चाहे हिंदू हो या इस्लाम, आज के विस्तार से बहुत पहले एक खास भौगोलिक और सामाजिक परिवेश में पैदा हुए, कई बार नष्ट हुए और फिर से पैदा हो गए. राजा किसी धर्म का प्रचार नहीं करते थे, बल्कि अपने राज्य का विस्तार करने के लिए धर्म का इस्तेमाल करते थे. बाबर ने भी यही किया था. ये साहब खुद शराब पीते थे और जब किसी जंग में इनके सिपाहियों के पैर उखड़ते थे तो खुद भी शराब से तौबा कर लेते थे और मजहब का नाम लेकर अपने सिपाहियों में एक नया जुनून पैदा कर देते थे. अब सिपाही तो सिपाही ठहरे. बादशाह के हुक्म के आगे उनकी बिसात कहां. वैसे भी हमारी ही तरह इन सिपाहियों के भी घर-परिवार होंगे, जिनसे बिछड़ने का दुख उन्हें हमेशा सालता होगा. अपने परिवार से मिलने की हड़बड़ी में अपने दुश्मनों पर टूट पड़ते होंगे. इन लोगों का धर्म कितना कमजोर था और आज के इतिहासकार उन्हें ‘इस्लामी आताताई’ कहते हैं. ठीक वैसे ही बाबर और इब्राहीम लोदी के धर्म में कितनी समानता थी? अब हुमायूं को लीजिए. शेरशाह ने जब इन्हें जिलावतन किया तो ईरान जाकर शिया बन गए. इतिहास में कितने ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि बाप का संप्रदाय कुछ और, बेटे का कुछ और और पोते का कुछ और! वैसे ही निजामुद्दीन औलिया और गियासुद्दीन तुगलक ही धर्म के मामले में कितने करीब थे? दोनों के ही धर्मों की ‘दिल्ली’ बहुत दूर थी. बेचारा गियासुद्दीन पहला मुस्लिम शासक होगा जो किसी ‘हिंदु ऋषि’ के नहीं, बल्कि एक मुसलमान सूफी के श्राप का शिकार हुआ होगा. ‘हनूज दिल्ली दूर अस्त’ - फारसी भाषा में निजामुद्दीन द्वारा दिया गया यह श्राप आज मुहावरे में बदल चुका है, और इसका इस्तेमाल लखनऊ के रहने वाले लोग भी उसी शिद्दत से करते हैं, जितना लाहौर के. तो क्या भाषा में ‘केंद्र’ सचमुच विस्थापित हो जाता है जैसा कि देरीदा कहते हैं? समय कितना उलट फेर कर सकता है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चंगेज खान के वंशज कालांतर में बौद्ध, इस्लाम और इसाई तीनों ही धर्मों के अनुयायी बन गए अर्थात्-

हम हुए तुम हुए कि ‘मीर’ हुए
एक ही जुल्फ के असीर हुए..
इतिहासकार मानते हैं कि औरंगजेब की हिंदू नीतियों की वजह से ही देश में विभाजन का फूट पड़ा. हैरत की बात है कि यह वही राजा था जिसकी उंगलियां फुरसत के वक्त वीणा पर थिरकने लगती थीं और जब वह मर रहा था तो यही उंगलियां तस्बीह के दानों पर थीं. तब कैसे एक ‘कट्टर सुन्नी मुसलमान’ की खुदा के यहां होगी, जिस मजहब में संगीत हराम है. तब तो शेख अहमद सरहिंदी की रूह जरुर कुलबुला रही होगी क्योंकि अक्सर इतिहासकार औरंगजेब को उन्हीं का वंशज बताते हैं. कुछ लोग यह मानते हैं कि अगर दारा शिकोह सत्ता पर काबिज होता तो आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता! मान लीजिए कि ‘भारत’ में अगर मुसलमान ही न आए होते तो क्या होता? कैसा होता भारत का इतिहास? प्राच्यविद् भारत की अनुशंसा कैसे करते? यह एक ऐसा होमवर्क है जिसे हम सब को पूरा करना चाहिए. कम से कम दिलचस्पी की वजह से बच्चे क्लास में बोर नहीं होंगे. मेरे ख्याल से अगर मुसलमान न आए होते तब भी पाकिस्तान (किसी और नाम से) जरुर बनता. हो सकता है कश्मीर (जैसे तिब्बत) के बौद्ध धर्मावलंबी एक अलग कश्मीर की मांग कर रहे होते. हो सकता है जर्मनी से फिलिस्तीन भागने के बजाए वहां के यहूदी भारत आ गए होते और गुजरात में मुसलमानों के बदले पारसियों का कत्ले आम हुआ होता. कुछ भी हो सकता है क्योंकि ज्यादातर इतिहास तो इन्हीं conjectures पर ही लिखा गया है.

इतिहासकारों का यह भी मानना है कि सांप्रदायिकता एक विचारधारा के रूप में ब्रिटिश काल में प्रस्फुटित हुई. इसके लिए वे अंग्रेजी नीतियों को जिम्मेवार ठहराते हैं और इसे साम्राज्यवादी षडयंत्र मानते हैं. पर इतिहासकार ब्रिटिश काल के पहले के कलह को किस रूप में देखते हैं? अगर यह कलह न होती तो मध्यकाल में नानक पंथ कभी नहीं उपजता और गुरु गोविंद सिंह के समय तक सिक्ख धर्म में परिवर्तित नहीं होता. सीधी सी बात है जब दो संस्कृतियां आपस में मिलती हैं, तो समंवय के साथ साथ टकराव की स्थिति भी उत्पन्न होती है. राष्ट्रवादी इतिहासकार इसे ‘हिंदू सभ्यता पर अतिक्रमण’ के रूप में देखते हैं, वहीं प्रगतिशील इतिहासकार इस बात पर कन्नी काटने लगते हैं. इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि कुछ मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं पर जजिया लगाया था और उन पर ढ़ेर सारी पाबंदियां आयद कर दी थीं, मसलन हिंदू खुलेआम बुतपरस्ती नहीं कर सकते थे, मुसलमानों के कब्रिस्तान के पास दाह-संस्कार नहीं कर सकते थे, मुसलमानों का पहनावा नहीं अपना सकते थे, अपने किसी मृतक के लिए ऊंची आवाज में शोक प्रकट नहीं कर सकते थे. ये सारी बातें सिलसिलेवार ढ़ंग से शेख हमदानी ने अपनी किताब जखीरतुल मुल्क में लिख दी हैं. हैरत की बात है कि ये सारी पाबंदियां वैसी ही थीं जो ब्राहम्णों ने शूद्रों के लिए जारी की थी. जैसा कि रेमंड विलियम्स ने लिखा है कि ‘इतिहास की कोई एक धारा नहीं होती’, उसी तर्ज पर एक तरफ तो मुस्लिम शासक हिंदुओं पर जुल्म ढ़ा रहे थे, वहीं ‘निम्न जाति’ के लोग ब्राहम्णों से तंग आकर इस्लाम अपना रहे थे. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मुसलमानों के अंदर तारीखनवीसी का जो भाव था वह हिंदू इतिहासकारों की तरह ही जेम्स मिल के उपयोगितावादी दर्शन से प्रेरित था. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह शुद्ध रूप से anachoronism.यानी कालदोश था. कहां जियाउद्दीन बर्नी और कहां जेम्स मिल! बादशाहों की खैरात पर लिखे गए इतिहास में बादशाह के धर्म का महिमामंडन आखिर क्यों न होगा. तीसरी महत्वपूर्ण बात यह कि उस समय के कट्टर मुस्लिम उलेमा सिर्फ हिंदुओं के खिलाफ नहीं थे बल्कि शिया और सूफी मत के लोगों को भी उसी कहर भरी नजर से देखते थे. अगर ऐसा नहीं होता तो शायद ‘अनल हक’ की आवाज सूली पर नहीं चढ़ी होती और आज पाकिस्तान में शियाओं की (बाबरी) मस्जिदों पर फिदायीन हमले नहीं होते. चौथी बात यह कि मुसलमानों के अंदर गुलाम रखने का एक बड़ा ही संगीन रिवाज था. इन गुलामों का हाल रोमन साम्राज्य के गुलामों जैसा तो नहीं था लेकिन गुलाम तो गुलाम ठहरे. इतिहास का एक और बड़ा उलट-फेर देखिए कि सल्तनत काल में गुलाम वंश का आधिपत्य हो गया और गुलामी से अपने करियर की शुरुआत करने वाले कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश और बलबन ‘कुलीनता’ के चेहरे पर कालिख मलते हुए बादशाह बन बैठे. पर ऐसा नहीं था कि गुलामों के राजा बन जाने से उस समय का ‘समाजवाद’ आ गया हो. जैसा कि रमाशंकर विद्रोही कहते है कि ‘सब राजा के होते हैं और राजा किसी का नहीं होता’, ठीक ऐसा ही हुआ.

इतिहास की ‘प्रयोगशाला’ में मैं इन बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मध्यकाल कोई आदर्श काल नहीं था और न ही प्राचीनकाल. सिर्फ ब्रिटिश काल पर ही दोष मढ़ देने से कुछ नहीं होगा. सांप्रदायिकता विचारधारा के तौर पर न सही, पर मध्यकाल में थी तो जरुर. चलिए सहूलियत के लिए हम इसे संप्रदायवाद कह लेते हैं. यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें राजा और रियाया में फर्क करना होगा.

कितना अदभुत संयोग है कि एक तरफ मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को मारकर उससे सत्ता छीन ली वहीं दूसरी तरफ लगभग साठ सालों बाद हलाकू ने बगदाद पर चढ़ाई कर अब्बासी खलीफा अल मुसतकीम का कत्ल कर दिया. अब कातिल कौन और मकतूल कौन? डी. डी. कोशांबी ने कितना सच कहा था कि ‘इतिहास का स्वर्णकाल अतीत में नहीं, बल्कि भविष्य में होता है.’

विभाजन की कड़ी को तलाशते हुए जब प्रियंवद 1857 में घुसते हैं तो उनकी यह घुसपैठ सचमुच ‘इतिहासतिमिरनाशक’ बन जाती है. वे 1857 के विद्रोह को उसी नजरिए से नहीं देखते जैसा आम इतिहासकार करते हैं. उन्होंने सावरकर और शाह वलीउल्लाह को एक ही कटघड़े में खड़ा कर दिया है, ‘वलीउल्लाह व मुसलमानों के लिए स्वधर्म या स्वराज की एकरुपता और उद्देश्य वही थे जो सावरकर के लिए थे. अगर 1857 में अंग्रेज हार गए होते तो किसका स्वधर्म जीतता? हिंदू का या मुसलमान का?’ यह प्रश्न अपने आप में काफी है इस बात को स्थापित करने के लिए कि उस समय के समाज में हिंदू-मुस्लिम के बीच गहरी खाई थी. ऐसा नहीं था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के बाद हुकूमत के सीधे मल्का-ए-विक्टोरिया के हाथों में चले जाने के बाद अंग्रेजों को अक्ल आई हो कि भारत में अंग्रेजी राज की निरंतरता बनाए रखने के लिए हिंदू-मुसलमान की विभाजन रेखा खींचनी शुरु कर देनी चाहिए. जैसा कि लेखक का नजरिया है कि इतिहास के इसी पड़ाव पर सांप्रदायिक दरार पड़नी शुरु हो गई थी. अगर ऐसा था तो अतीत के कलह का कोई मतलब नहीं था. वैसे भी अगर विद्रोह के तात्कालिक कारण पर नजर डालें तो यह ‘सूअर और गाय की चर्बी’ वाला मामला था. दोनों समुदाय अंग्रेजों से अपना धर्म बचा रहे थे, न कि किसी सांप्रदायिक सौहार्द की वजह से साथ आए थे. लेखक ने आगे उन इतिहासकारों की विवेचनाओं का खंडन किया है, जो इस विद्रोह को जनक्रांति का दर्जा देते हैं. सावरकर की जितनी लीपा-पोती हो सकती थी उन्होंने की है, प्रसिद्ध ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकार रामविलास शर्मा के नजरिए को भी नहीं बख्शा है. रामविलास शर्मा पता नहीं कहां से इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि यह विद्रोह सामंतवाद विरोधी था और इसमें फ्रांस, रूस और चीन की तरह ही जनता की दमित इच्छाएं हिलोड़े मार रही थीं. लेखक ने सही सवाल उठाया है कि जिस विद्रोह का नेतृत्व सामंत कर रहे थे, वह सामंतवाद विरोधी कैसे हो गया. क्या सम्राट अशोक की तरह ही इन रजवाड़ों के अंदर कोई वैचारिक हृदय परिवर्तन हो गया था? ऐसा तो मार्क्स ने भी नहीं कहा था. पर लेखक ने मार्क्स के बारे में जो बात कही है वह थोड़ी भ्रामक है. माना कि मार्क्स ने अंग्रेजों को हिंदुस्तानियों से श्रेष्ठ बताया था पर उनका संदर्भ पूरी तरह से आर्थिक था न कि सभ्यताई. पूंजीवाद उनके विश्लेषण में एक प्रगतिशील व्यवस्था की भूमिका के रूप में थी, साथ ही पूंजीवाद की आलोचना भी. दिक्कत बाद के मार्क्सवादी आलोचकों के साथ है. पता नहीं वे कब आर्थिक विस्लेषण करने लगते हैं और कब सभ्यताई (यहां संदर्भ रामविलास शर्मा जी के आर्यों को भारत का ही घोषित करने से है). ऐसे इतिहासकार तो अल्लामा इकबाल को भी प्रगतिशील कवि घोषित कर सकते हैं, क्योंकि उनके कुछ शेरो से क्रांतिकारिता झलकती है--

जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी
उस खेत के हर खोशाए गंदुम को जला दो.

भारत का विभाजन हो और इकबाल का जिक्र न हो, यह कैसे हो सकता है. नीत्शे के सुपरमैन का प्रभाव उनपर भी उतना ही था जितना आजकल के बच्चों पर वर्चुअल सुपरमैन का. मिल्लत और कौम उनके लिए एक ही चीज बन गई थी. उनके पहले के अवतार को इतिहासकार राष्ट्रवाद के आईने में देखते हैं और बाद के अवतार को सांप्रदायिकता की चाशनी में. पर हिंदुस्तान हो या पाकिस्तान, राष्ट्रवाद तो एक ही चीज है. धर्म इसमें अशोक स्तम्भ की तरह गड़ा होता है. प्रियंवद ने लिखा है कि ‘लाजपत राय ने इकबाल से 6 साल पहले वही बात कही जिसे कहने पर इकबाल को पाकिस्तान का वैचारिक जन्मदाता कहा जाता है.’ एक रोचक तथ्य यह भी कि पाकिस्तान के कथित ‘वैचारिक जनक’ यानी इकबाल और ‘भौतिक जनक’ यानी जिन्ना दोनों ही दो पीढ़ी पहले हिंदू थे. क्या घालमेल है इतिहास का. वही जिन्ना यह कहते थे कि ‘किसी मुसलमान के लिए, चाहे वह किसी देश का हो, यह संभव नहीं है कि दूसरे मुसलमान के विरुद्ध खड़ा हो सके.’ जिन्ना या उनके ‘भूत’ यह क्यों भूल जाते हैं कि मुसलमान कोई homogenous समुदाय नहीं है. बंगाल, केरल और तमिलनाडु के मुसलमानों की सोच वैसे ही बदलती है जैसे भाषा. उत्तर भारत के मुसलमानों के लिए उर्दू का पिछड़ापन एक मुद्दा हो सकता था, लेकिन केरल या बंगाल के मुसलमानों के लिए यह वैसा ही मामला था जैसे यूरोप में बारिश का होना. पर इन सबके बाद भी विभाजन हुआ. अगर जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बना दिया जाता तो जिन्ना कितने कौमपरस्त होते?

मुझे समस्या पाकिस्तान के बनने से नहीं है. पाकिस्तान और हिंदुस्तान तो रोज बनते हैं. सरहद तो दूर, इंसान और इंसान के बीच का विभाजन. काल का विभाजन. एक विभाजन खुदा और अल्लाह का भी. अल्लाह के मानने वाले खुदा से सिर्फ इसलिए दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि खुदा फारसी का शब्द है. क्या कसूर था वली दक्कनी का जो औरंगजेब के समय में पैदा हुए और मरे 2003 को गुजरात के जनसंहार में. कितने आराम से सोए थे वो कि अचानक उनकी कब्र पर सड़क बन गई. 1744 से 2003 - काफी लंबी है तारकोल की यह सड़क.

लिया है जब सूं मोहन ने तरीका खुदनुमाई का
चढ़ा है आरसी पर तब से रंग हैरत फिजाई का
(वली दक्कनी)

और क्या कसूर था उनका जो 14-15 अगस्त 1947 को पैदा भी हुए और फौरन धार्मिक ढ़ंग से मार दिए गए. इसका जिम्मेदार कौन था? मेरे ख्याल से नेहरु, जिन्ना, इकबाल या पटेल कतई नहीं थे. इस महात्रासदी का सारा श्रेय जाता है, इतिहास की निरंतरता को. अगर यह निरंतरता बनी रही तो किंग लियर भी कम नहीं होंगे. सर्व धर्म वर्जयते--यही हमारा नारा होना चाहिए ताकि भावी इतिहास में इतिहास के किसी पात्र को शर्मिंदा न होने पड़े और कोई धर्मों के समंवय की बात न कर सके.

हिंदुत्व और बौद्ध धर्म के एकीकरण की वकालत करने वाले विवेकानंद को आशा भी नहीं थी कि कालांतर में अंबेडकर मनुस्मृति का ही दाह-संस्कार कर देंगे और उनकी एक आवाज पर लाखों दलित बौद्ध धर्म की शरण में चले जाएंगे. अगर हम दिनकर की रश्मिरथी को हेगेल की ऐतिहासिक दृष्टि पर तौलें तो सचमुच ‘इतिहास कितना अदृश्य हो चलता है.’ विडंबना देखिए कि अंबेडकर ने जिस वैदिक भाषा में लिखी मनुस्मृति को जलाया, आज उसी भाषा (संस्कृत) में बुद्धं शरणं गच्छामि लाखों करोड़ों उत्पीड़ितों की आवाज बनती जा रही है. ‘धर्म संस्थापना’ का गीता-दर्शन ऐतिहासिक कारणों से धर्मांतरण में बदल रहा है. विवेकानंद के शब्दों को हथियार बनाकर हम इसे लाख चाहे ‘राइस क्रिश्चियन’ कह लें, पर सिर्फ चावल के बदले में ही लोग अन्य धर्मों को ही नहीं अपना रहे हैं. विभाजन रेखा खिंची हुई है जिसके ठोस राजनैतिक और आर्थिक कारण हैं और इसका नमूना अक्सर कंधमाल में देखने को मिल जाता है. एक ‘लोकतांत्रिक’ देश में बड़े ही ‘लोकतांत्रिक’ ढ़ंग से धर्मोन्माद का ‘भीड़-तंत्र’ खड़ा किया जाता है और बड़े ही धार्मिक ढ़ंग से उन लोगों का भक्षण किया जाता है जो या तो गिनती में कम होते हैं या जिन्हें अल्पसंख्यक होने का संवैधानिक आधार मिला हुआ है. यह भीड़तंत्र वर्ग की मार्क्सवादी अवधारणा से भी परे है. इसमे लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुने हुए नेता भी शामिल हैं और निम्न वर्ग के लोग भी हैं जो किसी इसाई महिला के अस्तित्व पर तथाकथित पांच हजार साल के सभ्यता की दुहाई देकर कालिख पोत देते हैं. मध्यवर्ग जो अक्सर निम्न वर्ग और नेताओं को हेय दृश्टि से देखता है और राजनीति के प्रति उदासीन रवैया रखता है, वह भी इस ‘बहती गंगा’ में हाथ साफ कर देता है. यहां सभी लोग भूखे आदमी हैं. धर्म से लेकर ‘चावल’ तक की भूख. पर विवेकानंद की इस बात का ही क्या किया जाय--‘भूखे आदमी को तत्वमीमांसा का उपदेश देना उसका अपमान करना है.’ तब हमें नजीर का कोई नज़ीर नहीं मिलता.

यां आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी पे तेग को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
जो सुन के दौड़ता है सो वह भी है आदमी
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Cultural Sperms

Cultural Sperms

A new discipline is about to emerge in the given context of current politics. The name of this discipline would be bio-political science in its all probability. Currently it is in its nascent stage and its progression clearly explains us about a more viable alternative that goes beyond the rewriting of history. According to this discipline, it is ultimately biology that determines your citizenship. Since current political science does not differentiate between Italian and Indian origin, it is but natural for biology to intervene patriotically. In current bio-political science, our present ancestry defines citizenship so that the reproduced human being is completely soaked up in the soil of our tradition. The more antiquated past becomes, the more uncertain becomes your claim over citizenship. Law, constitution, political mandate—they all become emotional skullduggery in the wake of a ‘profane’ bio-political science.

But how profane is bio-political science historically? In Vedic times, the term ‘foreigner’ (Maleccha) was used for those people who were obscured by shining Aryans due to their black colour. Later, biology was messed up with linguistics. As Shudras were assimilated into Varna system, it was Sanskrit that determined the standards for foreignness. Now all those who could not speak Sanskrit were called foreigners. The meaning of the term was later expanded when a pagan Alexander and a Zoroastrian Darius invaded Indus with their expansionist motives. The medieval period saw Muslims being dubbed as foreigners and then it was turn of the British colonialists.

This is a brief history of the issue of foreign origin and precisely this is the problem with Indian history that it has no symmetry in terms of foreigners. When Aryans invaded India (even if they originated here), the people of this very land were branded as malecchas. On the other hand, the Saffron history suggests that all religious communities other than that of sanatana dharma are foreigners. The problem does not end here. The nationalist and progressive historians see Britishers as foreigners. According to their approach, Britishers were never a part of broader nationalist discourse, though national consciousness emerged during their period. The problematic brief history ends here and does not cover the period after 1947. After 1947, citizenship was promulgated through previous histories and there exists a written constitution for this.

The issue of foreign origin is not specific to India alone. Since antiquity, the issue has been raked up and buried everywhere in the world. Let’s peep into the history of Italy as there is an Italian connection vis-à-vis the issue of foreign origin.

Though migration and invasion had been the destiny of Italy in her earliest times, there was no issue of foreign origin as such. The issue gained momentum in 99 BC after the great slave revolt and thus Italians gained citizenship. A major chunk of slaves was declared as foreigners in the same manner as Shudras had become aliens in their own land. But it was Benito Mussolini who dragged up the issue of foreign origin when he brought Italy into ideological harmony with Nazi Germany and launched a campaign of virulent anti-semitism. In 1938, it was declared that Jews did not belong to the Italian race. All Jews who had entered Italy since the First World War were directed to leave within six months. Vying with Hitler, Mussolini could have equaled the statistics of 6 millions, but fortunately Italy had only 70,000 Jews at that time. Here, biology provided ‘scientific bases’ for ‘pure’ Aryan race and bio-political science determined the foreignness of the Jews. This is how Jews were christened as foreigners.

Now the question is not whether one is foreigner or not. The history has been so asymmetrical that there is no material condition for the issue of foreign origin to exist in the society. The people who have raked up the issue are actually denying the past or upholding it. They are upholding it in the sense that even the original people of the land were declared as foreigners. They are denying the past in the sense that they don’t want to believe that their ancestors were such cruel people who usurped the right of the aboriginals. In a bio-political sense, they have gone the Italian way. Mussolini in fact, propounded the theory of ‘pure people’. Sonia Gandhi who hails from Italy, rejected this theory and went Indian way. On the other hand, people who originated in India have espoused this ideology. This is how in ultimate bio-political analysis, sperms become ideas. If it is cultural sperm, it will invent cultural nationalism. Therefore, fascism which had originated in Italy, found its strong cultural roots in India.

Friday, September 11, 2009

Rashid Ali


I would never be able to know about who and what I am.....
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